Saturday, May 30, 2020

18 नवंबर

18 नवंबर 2010 दोपहर,ऑपरेशन थिएटर में एफएम चल रहा था. डॉ मालविका,डॉक्टर शिवानी, उनकी 2 असिस्टेंट,एक एनेस्थेटिक के अलावा टेबल पर मीतू और साथ में स्टूल पर में था।
मीतू के पेट में चीरा लगा कर डॉक्टर ने कुछ मांस की परतें और खोली। स्टील के अर्धचंद्राकार इक्विपमेंट को उस कट में फिट किया गया।

एक पानी से फूले हुए गुब्बारे नुमा थैली जो बाहर की तरफ निकल रही थी उसको चीरा लगाया...और चारों तरफ उस LIQID की छींटे उछल गई।
एक बड़े चम्मच नुमा(service spoon जैसा) उपकरण को cut के अंदर डाल कर कुछ खींचा जा रहा था... हल्के बालों सहित यह तुम्हारा सिर था जो मुझको सबसे पहले दिखा था।धीरे से तुम को बाहर निकाला तो सबसे पहले यह तुम्हारे रोने की आवाज थी जो मैने और मीतू ने सुनी थी। मीतू और तुम्हारे बीच जो अंबिलिकल कॉर्ड थी उसको काट कर तुमको अलग किया गया।
Umbilical cord से स्टेम सेल को अलग करके सुरक्षित रखने वाली कंपनी के नुमाइंदे के हाथ पूरी व्यवसायिक तेजी से चल रहे थे।

खून का लाल रंग सब तरफ था। डॉक्टर के हाथ पर टेबल पर जमीन पर, मगर पहली बार फैला हुआ खून भी सकून दे रहा था।

नर्स तुमको अपने हाथों में उठा कर साफ़ करने के लिए जाने लगी...अचानक मुङी और तुमको मेरे पास ले आई यह मैंने और मीतू ने तुम को पहली बार देखा था।

" मां-बाप,दादा-दादी,चाचू-चाची, नाना-नानी,मामा-मामी बुआ-फूफा सब एक झटके में पैदा हो गए थे।"

कहते हैं आज तुम्हारा जन्मदिन है।मुझको तो इन सब रिश्तो का जन्मदिन लगता है। प्रभु तुम्हें ऐसी प्रज्ञा से नवाजे कि तुम हमेशा रिश्तो की गर्माहट का आनंद लेते रहो स्वस्थ रहो मुस्कुराते रहो।

14 जुलाई

दादी का देहांत हुए लगभग 5 साल होने वाले हैं. उनके इंतकाल यानी 14 जुलाई से एक हफ्ता पहले हॉस्पिटल प्रवास के दौरान दादी के साथ कई यादें जुड़ी हुई है.

वीर उनकी चौथी पीढ़ी था. वीर के जन्म पर दादा-दादी (जिनको हम सब पापा जी भाबी जी कहते थे) के चेहरे के भाव उनके उल्लास को बयान कर रहे थे. साथ ही साथ अपने बड़े बेटे (यानी डैडी) को खो चुकने का दर्द भी कहीं ना कहीं छलक उठता था.

90-92 की उम्र में भी वीर के साथ पापा जी का दरवाजे के पीछे से लुका छुपी खेलना...अलग अलग तरह से आवाजें निकालकर, उसकी मुस्कुराहट देखकर लाजवाब हो जाना...
भाभी जी के बिस्तर पर चढ़कर उनको टांगे मारना, बिस्तर खराब कर देना... इन पर भी भाव-विभोर होना.
इन सबका मैं साक्षी हो पाया यह मेरा सौभाग्य ही तो था.

खैर फिर वापस हॉस्पिटल पर आते हैं.

रूम से आईसीयू,आईसीयू से रूम फिर आईसीयू इन सबके बीच की अदला बदली के बावजूद,दादी कभी भी नहीं भूली थी कि वीर के मुंडन उन्होंने 14 जुलाई के लिए तय किए हैं.
परिवार से जो भी मिलने आता,उसे यही याद करवाते कि मुंडन 14 जुलाई को ही होने हैं.
मुण्डन बाद मे करवाने के मेरे प्रस्ताव को उनके इसरार भरे उत्तर ने खारिज कर दिया था.

पास बैठी नीतू आंटी और सीता आंटी को उन्होंने बुलाया, मुंडन के सारे रीति-रिवाज समझाएं और पूरा करने की जिम्मेदारी दी.

"हलवा बनाकर थाली में रखना. उसको बकरे का आकार देना.और फिर उसे कृपान से काटना."
सलाम है मेरे पुरखों को जिन्होंने बलि देने के रिवाज में तब्दीली लाते हुए उसको हलवे के बकरे में बदला.

12 या 13 जुलाई को पाबी जी ने रिस्पांस देना बंद कर दिया था. मैंने पवन अंकल,मम्मी और मीतू ने निर्णय लिया कि मुंडन भाभी जी की इच्छा के मुताबिक ही होंगे.

14 जुलाई सुबह सुबह नाई को उस्तरा चमकाने का मौका दिया गया.सारी रस्में पूरी की गई. जैसे ही नाई अंतिम उस्तरा उतारकर अलग हुआ...फोन घन घना उठा नरेश अंकल फोन पर थे. भाबी जी ने बस अभी अंतिम सांस ली है. मैं इस कहानी, इस अनुभव को कंनक्लूड नहीं कर पाया और ना ही कर पाऊंगा.
शायद मैं चाहता ही यही हूं कि कोई निष्कर्ष ना निकाला जाए. सिर्फ भावनाएं और संवेदनाएं ही रहे.

बजरंग बली 2

शेरवानी, लंहगे,साड़ी से सजी मैनिक्विन और सामने बजरंगबली... क्या तालमेल है??
बाल ब्रह्मचारी घिरे है बाजार से. शादियों का सीजन है. चारों तरफ चूड़ा, चुन्नी, लहंगा, शेरवानी और ज्वेलरी की धूम है.
सड़क पर भरपूर चहल पहल है. मंदा सा कुछ चल रहा है... अखबार ऐसा कहती हैं. शोरूम अपेक्षाकृत कुछ कम भरे से हैं. खाने के स्टॉल और फुटपाथ बाजार में पूरी रौनक है.
भीड़ में लड़के लड़कियों की डेटिंग करते हुए जोड़े, टिंडर पर डेट ढूंढते हुए छड़े, चह-चाहते लड़कियों के ग्रुप, शादी की खरीदारी करते परिवार, ज्वेलरी शोरूम की साड़ी पहनी पुती- पुताई सेल्सगर्लस... तरह-तरह की भीड़ है.
मंदिर के आगे से निकलते हुए कोई दिल पर हाथ रखकर झुकते हुए, कोई हाथ जोड़कर निकलते हुए, कोई रुक कर घंटी बजाकर बुद-बुदाते हुए, वाकई में वैरायटी है : दुआ मांगने वालों की और दुआ मांगने के तरीकों की.
द्वार के ठीक ऊपर रक्षक बजरंगबली तो है ही. मंदिर में ठीक सामने मंद-मंद मुस्कुराते हुए राधा-कृष्ण की मनमोहक मूर्ति है.
हरे वस्त्रों में राधा और पीतांबर में सोलह कला संपूर्ण कृष्ण.

आइए अब जरा क्लाइडोस्कोप मैं झांकते है...

बजरंगबली आपका नाम लेकर यह जो दल बना है ना लड़के लड़कियों के जोड़ों को हड़का रहा था.
कह रहा था कि "सभ्यता खतरे में है."
हे बाल ब्रह्मचारी आप तो राधा कृष्ण की मूर्ति के रखवाले हैं, द्वार पालक हैं. क्या आपको भी धमकाया इन्होंने??
आपको भी चिल्ला कर बोल कि हे बॉडीगार्ड हट सामने से.राधा की मूर्ति हटानी है रुक्मणी की लगानी है.

बजरंगबली

आजकल मेट्रो से आना जाना हो रहा है. पार्किंग वगैरा की झंझट से मुक्ति. मेन मार्केट से गुजरते हुए बड़े मजेदार अनुभव हो रहे हैं. अक्सर वापसी शाम 7:30 के आसपास होती है. मार्केट में ही मंदिर है और वहां संध्या आरती की आवाज अक्सर सुनने को मिलती है.
ओम जय जगदीश हरे... मंदिर छोटा सा है.बाहर लिखा है 1948 में स्थापित. मुख्य द्वार के ठीक ऊपर चिर परिचित अंदाज में हनुमान जी उर्फ वीर बजरंगी उर्फ बाल ब्रह्मचारी अपनी लंगोट में, हाथ में गदा धारण किए हुए विराजमान हैं.
जीवन भी बड़ा मजेदार है. एकाकी रूप में देखने में चीजें अलग भाव देती हैं. और जब उनको एक दूसरे के साथ रखकर देखा जाता है तो क्लाईडोस्कोप बन जाता है. ब्लैक एंड व्हाइट चित्र रंगीन हो जाता है. ऐसा ही कुछ हमारे बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी की मूर्ति के साथ है.
मंदिर के ठीक सामने कई दुकानें हैं और स्वाभाविक रूप में महिला ग्राहकों का विशेष ध्यान है
झीने-झीने कपड़ों में लिपटे बुत आकर्षित करते हैं. ऊपर वाला तो सभी बलाओ को अलग-अलग बनावट देता है.परंतु ये बुत तो आदमी की कल्पना में परफेक्ट फिगर का रूपांतरण है.लाइन से काले/ गोरे/स्टील फ्रेम के बुत और उन पर झीने-झीने कपड़ों के आवरण चाहते और न चाहते हुए भी कुछ नहीं छुपा पाते.
बगल वाली दुकान की विंडो तो भावनाओं का ज्वार पैदा करने के लिए ही शायद खुली है. विंडो में बुतों के ऊपर बेहतरीन अंतः वस्त्र (आजकल के लफ्जो में लॉन्जरी) आपको कल्पनाओं में ले जाने के लिए काफी है.
आज इन बुतों पर पिंक कलर कहर ढा रहा था. कल काले रंग का जलवा था. उससे पहले फिरोजी और पहले सब लाल ही लाल था. अब तो शाम को जाते हुए मन में कौतूहल होता है कि आज कौन सा रंग या कौन सा ढंग होगा?
बेचारे बाल ब्रह्मचारी की मूर्ति ठीक इन नुमाइशई बुतो के सामने हैं. आंखें भी ठीक इधर ही लगती है. वे है भी मंदिर के द्वार के ऊपर तो ज्योमेट्री के मुताबिक आदर्श कोण पर स्थापित है.
रोज बदलते रंग ढंग और एक टक स्थापित बजरंगी की निगाहें, मन को रोज गुदगुदाती है.जहन में शरारती विचारों को पैदा करती हैं. अब तुम्हारा क्या होगा बजरंगबली?यह तो कलयुग है.
मगर बजरंगबली हैं कि स्थिर है, स्थापित हैं, बुत हैं और बुतों की और ही देख रहे हैं. दोनों ही बुतों में जीवन हमारी भावनाएं ही दे रही हैं.

हिंदू या सिख

एकीकृत पंजाब के गुज़रावाला मे है मेरे परिवार की जड़े।
परदादा लाला मथुरादास मेहता ने अपने सबसे बडे बेटे(यानि मेरे दादा)को सिख बनाया, नाम दिया सरदार स्वरूप सिंह मेहता। बाकी तीनो छोटे भाई सहजधारी रहे।दादी का नाम था सरदारनी राजेन्द्र कौर मेहता।
क्या यह एक परिवार था, या कुछ हिन्दू और कुछ सिख थे ?
1947 मे विभाजन हुआ, दंगे हुए।
गैर मुसलमान होने की वज़ह से लुटे भी, पिटे भी, जान के लाले भी पड़े।
500 एकड़ भूमि पर कृषि करने वाला परिवार शरणार्थी बना।
जाने कैसे जा पहुंचा यह परिवार भिण्ड(मध्यप्रदेश)।
शून्य से मेहनत की और फिर परिवार सम्पन्न हुआ।
अब बारी थी 1984 की, फिर बारी थी दंगो की, लूट की,मारने की, जलाने की...फिर से शरणार्थी होने की। किस्मत अच्छी थी जान बची।
आखिर मेरी पहचान क्या है?
हिन्दू या सिख ?
मै तो कोई अन्तर ही नही कर पाता।
बचपन से घर मे ओम जय जगदीश हरे.... और सतनाम करता पुरख....दोनो का रस लिया है।
पंजाब मे एक हिन्दू नेता की हत्या की खबर ने मेरे ज़ख्म फिर हरे कर दिए है।
दादा जी यानि सरदार स्वरूप सिंह मेहता सिर्फ़ उर्दु ही पड़ पाते थे(सुखमनी साहिब व अन्य गुटके भी उर्दू के ही पड़ते थे)और दादी सिर्फ गुरमुखी। ऊपर से मेरी माँ यानि सरदारनी दादी की कृष्ण भक्त बहू। मगर घर मे तो कभी दंगे नही हुए। न भाषा पर ना धर्म पर।

जरूरत या आदत

जरूरत का ही परिष्कृत नाम है अर्थव्यवस्था, यानी economy

अब आपके मन में चल रहा है कि क्या बोल रहा है यह गधा ?
इसको ना GDP का पता ना CRR का क्या जाने ECONOMY का ?

चलिए कुछ *गंदी बात* करते हैं (एकता कपूर वाली नही)

गंदी से मेरा कहने का मतलब है गैर-परिष्कृत.

जो लोग कस्बों में पैदा हुए हैं उनको पता होगा कि लगभग 20-25 साल पहले लोग वॉशरूम नहीं जाते थे,टट्टी जाते थे. फिर लैट्रिन जाना शुरू हुए कुछ अरसा पहले वॉशरूम या रेस्ट रूम, और अब WC.दोस्तों शब्द तो परिष्कृत होते गए क्या मूल मुद्दा या ITEM भी बदला ??

बिल्कुल यही अंतर है जरूरत और इकोनॉमिक्स का. आडंबर बढ़ते गए पेड़ के पत्ते से पानी और लोटे से जेट पंप हैंड शावर और टॉयलेट पेपर तक, सब बदलते गए. याद रखिए मूल मुद्दा वही था साफ करना.

याद है??
सबने पढा था बार्टर सिस्टम.
भाई मेरे पास गेहूं है पर सब्जी नहीं तू सब्जी दे दे, मैं गेहूं देता हूं. मै नाई हूं तू बढई. मै बाल काट दिया करूगा तू मेरा लकड़ी का काम कर दिया कर.
एक दूसरे की जरूरत पूरी करने की व्यवस्था.
धीरे-धीरे उत्पादन बढ़ा और यहीं से आना शुरू हुआ अंतर. बड़े हुऐ उत्पादन को संग्रह करने की जरूरत ने भंडार गृह पैदा किए, और यही से समानता ने असमानता की तरफ बढ़ना चालू किया होगा.
आदान-प्रदान से व्यवस्था बदल कर आनाज से भुगतान की तरफ पर चली थी. समाज पत्ते से पानी यानी लोटे की तरफ चल पड़ा था.

मुद्रा के प्रचलन में आने के बाद एक नया वर्ग पैदा हुआ व्यापारी. इसने संग्रह किया हुआ माल खरीदा और जहां इस सामान की कमी होती थी वहां नफा लेकर बेचा. अब राज्य भी संगठित होना शुरू हो गया था. उसको भी मुद्रा का चस्का लग चुका था. राज्य की सम्पन्नता और नगर सेठों की संख्या बढ़नी शुरू हो गई थी. लोटे में केवड़ा और गुलाब अर्क डालना शुरू हो गया था यहीं से लोटे और लोटे में अंतर आना भी शुरू हो गया था. अब संपन्नता को सुरक्षा की जरूरत थी.ज्क्हिए थी जीवन की आग से पानी से जानवरों से परंतु अब सुरक्षा की दरकार थी असमानता से. राज्य को अपनी संपत्ति, एशो आराम, अय्याशी को सुरक्षित रखने की जरूरत थी.
अब अर्थव्यवस्था उत्पादन आधारित से आगे बढ़ गई थी. यह अब खपत Consumption आधारित हो चुकी थी. 
व्यापारिक घरानों के पास सामान था गोदाम भरे हुए थे बेचना जरूरी हो गया था. तो अब उधार ले लो की शुरुआत हुई. ब्याज की शुरुआत हुई. समान की जगह मुद्रा/पैसा बिकना शुरू हुआ. अब यह व्यवस्था खपत consumption से वित्त finance आधारित हो चली थी. इसके key words थे loan, insurance, shares, डिवेंचर, banking. *जरूरत अब COMMODITY बन चुकी थी.* सब डिजिटलाइज हो रहा था. दसवीं मंजिल पर w.c. में बैठा आदमी लौटे की जगह जेट पंप, toilet paper या हैंड शावर इस्तेमाल कर रहा था. अचानक प्रकृति की गोद से कोरोना नामक विषाणु निकला और लोगों को घरों में बंद कर दिया. खपत कम हो गई,यह अर्थव्यवस्था वापस जरूरत के सामान पर आ गई. टॉयलेट पेपर की लूट हो रही थी. टॉयलेट पेपर की कमी थी मगर, जरूरत टॉयलेट पेपर की नहीं सफाई की थी. टॉयलेट पेपर की तो सिर्फ आदत थी.
आज की ये अर्थव्यवस्था, जरूरत की नहीं, आदत की अर्थव्यवस्था है...

VIR

VIR
तू भी जानता है कि मैं कितना प्यार करता हूं और मैं भी जानता हूं. जताने की जरूरत है क्या ?
मेरा गुस्सा मेरी डांट तेरे लिए मेरे प्यार का हिस्सा ही तो है. कच्ची मिट्टी, यह फटकार तेरे को गूंथने के लिए ही तो है तुझे सही आकार मिले यही चाहत है.

पिता के साथ एक थोड़ा फासला सा हुआ करता था. मां एक पुल हुआ करती थी. आज जितना कम्युनिकेशन नहीं हुआ करता था. हर नए दिन आई लव यू डैड या आई लव यू बेटा कहने का प्रचलन भी नहीं था. मगर यह एहसास हमेशा था कि मेरे पिता हमेशा मेरे साथ हैं.
आवाज ऊंची होते ही पेंट गीली होने की नौबत तक आ जाती थी. मगर आप हमेशा आदर्श थे.

शेव बनाते हुए ब्रश से फोम लगा देना..

साइकिल के अगले डंडे पर बैठाकर चलाते हुए गड्ढे पर बिल्कुल धीरे से निकालते हुए कहना कि लगी तो नहीं...

रात को सोते हुए माथे पर आपकी गरम हथेली का एहसास...

आज वीर की डांट लगाई है. डांट लगाने के बाद डैडी आपकी बहुत याद आई. आप कहते थे ना जब बाप बनेगा तब पता चलेगा...