दादी का देहांत हुए लगभग 5 साल होने वाले हैं. उनके इंतकाल यानी 14 जुलाई से एक हफ्ता पहले हॉस्पिटल प्रवास के दौरान दादी के साथ कई यादें जुड़ी हुई है.
वीर उनकी चौथी पीढ़ी था. वीर के जन्म पर दादा-दादी (जिनको हम सब पापा जी भाबी जी कहते थे) के चेहरे के भाव उनके उल्लास को बयान कर रहे थे. साथ ही साथ अपने बड़े बेटे (यानी डैडी) को खो चुकने का दर्द भी कहीं ना कहीं छलक उठता था.
90-92 की उम्र में भी वीर के साथ पापा जी का दरवाजे के पीछे से लुका छुपी खेलना...अलग अलग तरह से आवाजें निकालकर, उसकी मुस्कुराहट देखकर लाजवाब हो जाना...
भाभी जी के बिस्तर पर चढ़कर उनको टांगे मारना, बिस्तर खराब कर देना... इन पर भी भाव-विभोर होना.
इन सबका मैं साक्षी हो पाया यह मेरा सौभाग्य ही तो था.
खैर फिर वापस हॉस्पिटल पर आते हैं.
रूम से आईसीयू,आईसीयू से रूम फिर आईसीयू इन सबके बीच की अदला बदली के बावजूद,दादी कभी भी नहीं भूली थी कि वीर के मुंडन उन्होंने 14 जुलाई के लिए तय किए हैं.
परिवार से जो भी मिलने आता,उसे यही याद करवाते कि मुंडन 14 जुलाई को ही होने हैं.
मुण्डन बाद मे करवाने के मेरे प्रस्ताव को उनके इसरार भरे उत्तर ने खारिज कर दिया था.
पास बैठी नीतू आंटी और सीता आंटी को उन्होंने बुलाया, मुंडन के सारे रीति-रिवाज समझाएं और पूरा करने की जिम्मेदारी दी.
"हलवा बनाकर थाली में रखना. उसको बकरे का आकार देना.और फिर उसे कृपान से काटना."
सलाम है मेरे पुरखों को जिन्होंने बलि देने के रिवाज में तब्दीली लाते हुए उसको हलवे के बकरे में बदला.
12 या 13 जुलाई को पाबी जी ने रिस्पांस देना बंद कर दिया था. मैंने पवन अंकल,मम्मी और मीतू ने निर्णय लिया कि मुंडन भाभी जी की इच्छा के मुताबिक ही होंगे.
14 जुलाई सुबह सुबह नाई को उस्तरा चमकाने का मौका दिया गया.सारी रस्में पूरी की गई. जैसे ही नाई अंतिम उस्तरा उतारकर अलग हुआ...फोन घन घना उठा नरेश अंकल फोन पर थे. भाबी जी ने बस अभी अंतिम सांस ली है. मैं इस कहानी, इस अनुभव को कंनक्लूड नहीं कर पाया और ना ही कर पाऊंगा.
शायद मैं चाहता ही यही हूं कि कोई निष्कर्ष ना निकाला जाए. सिर्फ भावनाएं और संवेदनाएं ही रहे.